दुनियादार शीर्षक से लिखी कविता कवि ने एक पढे-लिखे व्यक्ति की मनोदशा को व्यंग्यात्मक रूप में समाज के सामने रखने का सराहनीय प्रयास किया है। कविता रोचक और ज्ञानवर्द्वक होने से पठनीय बन पड़ी है।
मोठी आई- कविता परिवार को समूह में रहने की प्रेरणा देती हैं। कुल मिलाकर एक सरल सहज काव्य संग्रह ‘एक जगह साथ’ कई रंगों की कविताओं का सुख देता है।
पुस्तक – एक जगह साथ (कविता संग्रह)
लेखक – विश्वनाथ कदम
कविता ‘अंतहीन सुखमयी पल’ में एक याचक की व्यथा-कथा का अच्छा चित्रण किया गया है। पिता-पुत्री का दयाभाव व याचक की व्यथा-कथा मन को झकझोरती है। जिंदगी की तन्हाई में अकेलेपन का चित्रण है। मेरा कस्बा कविता में अतीत से अब तक के बदलाव को रेखांकित किया गया है। कस्बे के शहर में बदल जाने व समयानुसार लोगों के रंगरूप बदल जाने का चित्रण अच्छा किया गया है। इसमें लेखक की पंक्तियां दिल बदल गए/ रिश्ते बदल गए/ मंजिलें बदल गईं/ लोग बदल गए/ भावनाएं बदल गईं- बहुत कुछ कह जाती हैं।
खूबसूरत संसार में चुलबुली बालिका की शरारतों ने बहुत लुभाया। मुर्गी को मुगड़ी बोलने वाली बालिका की हरकतें मन को लुभाती हैं।
कविता खुश-गम प्रेमी-प्रेमिका के साथ-साथ न होने की कथा कहती है मसलन तू मेरे पास नहीं/ तू मेरे साथ नहीं/ अजीब सी विडंबना है मेरे लिए। खैर?
‘हमारा श्राप’ शीर्षक से रची कविता में असंख्य कटे पेड़ों के विलाप को आवाज देकर लेखक ने स्तुत्य कार्य किया है। पेड़ों के रूदन, तड़पना, आंखों में आंसू आदि पाठक के दिल को सीधे स्पर्श करते हैं।
एक साथ चलने का सबब कविता में लेखक ने खजूर के पेड़ को लेकर अपने मन की बात कही है। जैसे जिंदगी का यह सफर/ जो मिला है हमें जय करने को… आदि पंक्तियां बेहतरीन हैं।
यथार्थ 24 घंटों का कविता में नारी मन की व्यथा-कथा का अच्छा चित्रण किया गया है। भारत व कमोबेश सारे संसार की अधिकतर नारियों की यही व्यथा-कथा है। महिलाओं को आज भी वह मान-सम्मान व आदर नहीं मिला है जिसकी कि वे हकदार हैं। दुनिया की आधी आबादी आधा पेट खाकर पूरे जग-संसार को पालती है। कहीं-कहीं प्रूफ की त्रुटि खलती है, किंतु वे नजरअंदाज करने योग्य हैं। श्रेष्ठ कविता संग्रह पर लेखक को साधुवाद।
पुस्तक : सुगंधिता (काव्य-संग्रह)
कवि : ललित भारद्वाज
प्रकाशक : माधुरी प्रकाशन
मूल्य : 225 रुपए
कहीं-कहीं तो यह निबंध खांटे यात्रा वृत्तांत बन जाते हैं लेकिन फिर निबंध की अपनी गति पकड़ लेते हैं। खुद लेखक के शब्दों में-‘सोचता हूं यह निबंध भी तो एक झुटपुटा है। धूप के अनुभव में घुली हुई संवेदना का ऐसा झुटपुटा जिसके सिंदूरी अनुभवों से कभी मुक्त होने का मन नहीं करता। ऐसा सिंदूरी, दूधिया धुंधलका जिसमें सबकुछ साफ दिखाई देता है। लेकिन फिर भी जिसे लोग धुंधलका कहते हैं।” संग्रह के सभी निबंधों में भाषा का यही प्रवाह आपके साथ आगे बढ़ता चला जाता है।
और अंत में जब आप ‘अम्मा’ को पढ़ते हैं तो अपनी दादी या मां को खोजने लगते हैं। भले ही उनके देश, काल या परिस्थितियों में अंतर रहा हो लेकिन आखिरकार तो यह भावना सर्वोच्च है ही जो औरत का सहज औरत होना सार्थक करती है। पुस्तक को पढ़ने के बाद शायद अगली बार आपको बस स्टैंड पर खड़ी किसी भी बुजुर्ग महिला में अपनी दादी या मां का अक्स नजर आने लगे और कुछ क्षणों के लिए आपका मन तरलता से भर जाए, तमाम दौड़ती-भागती चीजों के बीच।
पुस्तक : तुम नहीं दिखे नगाधिराज
लेखक : नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
प्रकाशक : मेघा बुक्स, एक्स 11, नवीन शहादरा, दिल्ली, 110032
मूल्य : 250 रुपए
लेखक ने ‘न घर, न घाट’ में एक ओर दलित घीसू के डॉक्टर बन जाने पर गांव, पत्नी व पिता को भुला दिए जाने के उसके व्यवहार को उकेरा है तो साथ ही ऊंचे पद पर पहुंच जाने के बावजूद दलित के प्रति उच्च वर्ग लोगों का रवैया नहीं बदलने की बात रखी है।
‘मृगतृष्णा’ में एक लाड़-प्यार में पले-बढ़े, थर्ड डिवीजन में पास बिगड़ैल पौत्र के प्रति मोह के कारण नामी प्रोफेसर रहे दादाजी जब-तब शर्मिन्दगी झेलते हैं। पति की बीमारी में अस्पताल में पैसों की किल्लत से जूझती पत्नी की व्यथा ‘तैरती मछली के आंसू’ में टपकती नजर आती है।
‘पीएचडी करती लड़की का पिता’ में बेटी की पीचएडी के दौरान पिता को हुए अनुभवों का रेखाचित्र है। पिता और बेटी के प्यार को लेकर कम ही उपन्यास और कहानियां लिखी गई हैं। लेकिन लेखक ने इस विषय पर भी अपनी लेखनी के जरिए अत्यंत सहजता और सरलता से पिता के दिल में बेटी के लिए छुपे प्यार को शब्दों में पिरोया है।
इस कहानी में लेखक लिखते हैं कि ‘यह अलग बात है कि पिता का प्यार दिखाई नहीं देता। वह निर्व्याज, निःस्वार्थ, तर्कातीत और मौन होता है।’ ‘बासी कढ़ी में उबाल’ में उम्रदराज व्यक्ति का जीवन से मोह व बुढ़ापे के आगमन के दौरान होने वाले अनुभवों को लेखक ने काफी खुलेपन से प्रस्तुत किया है। ‘जल्दी घर आ जाना’ पत्नी के बिना पति की दशा बयान करती है। वहीं ‘बेटियां’ माता-पिता के प्रति बेटी के निःस्वार्थ प्रेम को दर्शाती हैं। भावना के स्तर पर ये कहानियां हमको उद्वेलित करती हैं।
पुस्तक : श्रेष्ठ कहानियां
लेखक : सूर्यकांत नागर
प्रकाशक: समय प्रकाशन, आई1/ 16, शांतिमोहन हाउस,अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली, 110002
कीमत : 160 रुपए
इस किताब में सिलसिलेवार तरीके से हर विषय पर विस्तार पूर्वक लिखा गया है। मसलन न सिर्फ टेलीविजन की दुनिया के अनुरूप शब्दों और वाक्यों के बारे में तफ्सील से लिखा गया है। बल्कि स्लग, टॉपिक, प्रोमो, हेडलाइंस, एंकर या फिर रिपोर्टर की भाषा पर अलग-अलग चैप्टर बनाकर विस्तारपूर्वक बताया गया है। ऐसा लगता है कि लेखक ने सिर्फ भाषा को आधार बनाकर इस पुस्तक को लिखने में काफी श्रम किया है।
किताब सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसमें हर टॉपिक पर ढेरों उदाहरण दिए गए हैं। नए-नए विद्यार्थियों के लिए सबसे बडा फायदा ये है कि वो इस किताब से टेलीविजन पत्रकारिता की दुनिया से वाकिफ हो सकेंगे। अगर उन्हें न्यूज चैनल में काम करना है तो वे इस किताब के जरिए टीवी की दुनिया की भाषा से परिचित हो सकेंगे।
यही नहीं, इसमें स्क्रिप्टिंग को लेकर न सिर्फ विस्तार से बताया गया है, बल्कि चौदह उदाहरण भी दिए गए हैं। ये वो चीजें हैं जो किसी विश्वविद्यालय या इंस्टीट्यूट में नहीं पढ़ाया जाता।
खुद लेखक के मुताबिक ‘मैं पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद जब न्यूज चैनल में काम करने के लिए आया तो एक नई तरह की दुनिया सामने नजर आई, ऐसे में मुझे यही लगता रहा कि जो पढ़ाई मैंने की, आखिर वो किस काम की है। इसके बाद मैंने एक ऐसी किताब लिखने का फैसला किया, जो पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले लोगों को व्यवहारिक ज्ञान दे सके।’
किताब में सिर्फ पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि पेशेवर पत्रकारों के लिए भी काफी मसाला है। अपनी स्क्रिप्ट को कैसे बेहतर बनाएं, किताब को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है। इसमें एंकर की भाषा और रिपोर्टर की जुबान पर अलग-अलग चर्चा की गई है।
यही नहीं इस किताब में छोटी-छोटी बारीकियों को भी समेटने की कोशिश की गई है। मसलन स्त्रीलिंग-पुल्लिंग, वचन, मुहावरे और लोकोक्तियां का भी एक अच्छा खासा संग्रह दिया गया है। भाषा को लेकर कानूनी बारीकियों को भी इसमें समेटने की कोशिश की गई है।
इस किताब के आमुख को लिखा है टेलीविजन की दुनिया के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक राजदीप सरदेसाई ने। राजदीप ने कहा कि इस किताब को हर टेलीविजन पत्रकारों को जरूर पढ़ना चाहिए। किताब के बारे में विस्तार से लिखते हुए राजदीप सरदेसाई एक जगह लिखते हैं कि टेलीविजन न्यूज मीडिया में लोगों का भरोसा फिर से कैसे बहाल किया जाए, इसके लिए सही भाषा की समझ जरूरी है। चाहे वो बोल्ड हेडलाइन हो, ब्रेकिंग न्यूज हो या फिर न्यूज फ्लैश। जरूरी है कि उसकी भाषा तस्वीरों के अनुकूल हो और बारीक छानबीन के बाद उसे तथ्यों के अनुरूप ही लिखा जाए।
राजदीप के अनुसार भाषा एक दोधारी तलवार की तरह है। इसका प्रयोग संपर्क बनाने में भी किया जा सकता है और उलझाने में भी। हरीश की किताब हर उस व्यक्ति के लिए सटीक मार्गदर्शन उपलब्ध कराती है, जो फिलहाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम कर रहे हैं या भविष्य में करेंगे।
पुस्तक : ‘टेलीविजन की भाषा’
लेखक : हरीश चंद्र बर्णवाल
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन
पृष्ठ संख्या : 236
मूल्य : 350 रुपए